Sunday, January 20, 2013

जहाज़ की खिड़की से हिमालय

मेरे नगपति , मेरे  विशाल !

10.01.2013 
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जहाज़ की खिड़्की से हिमालय दिखता रहा...... दिल्ली से टेक ऑफ के तुरत बाद और गुवाहाटी में लेंड करने से कुछ देर पहले तक . विराट ! भव्य !! और स्थिर !!! जो सब से ऊँचा था सगर माथा और उस से ज़रा सा नीचे खङछेन ज़ोङ्खा . गुवाहाटी के आस पास धुन्ध बहुत थी फिर भी कुछ चौड़ी मटमैली नदियों की झलक मिली लोहित , त्सङ्पो ..... ? 
लेकिन गुवा हाटी से शिलोंग जाते हुए मन खराब रहा . सड़्कें चौड़ी की जा रही हैं . धूल, मलबा, अतिकाय खुदाई मशीने, बेतरह खुरच दी गईं पहाड़ियाँ , किनारे किनारे छोटे छोटे लोग और छोटी झोंपड़ियाँ . मैं इस उथल पुथल से दूर चले जाना चाहता था !! पहाड़ को देखना सुखद था लेकिन उस पर चलना कितना कष्टकारी .....

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हिमालय के इस छोर और उस छोर में कितनी समानता है ? 

जितनी किसी भी चीज़ के दो छोरों में होनी चाहिए. उत्तर पूर्व कभी एक दम अपना सा लगता है , कभी एक 

दम अजनबी . आम आदमी की अर्थिक स्थिति पश्चिमी हिमालय मे अधिक बेहतर है शायद ; लेकिन कह 

सकते हैं कि उत्तर पूर्व का इलाक़ा पश्चिमी हिमालय से कहीं ज़्यादा एक्स्पोज़्ड है . सभ्यता के दो बड़े 

इंडिकेटर -- खुलापन और प्रदूषण दोनो ही इस छोर पर अधिक है . अपना छोर अभी भी लजाता झाँकता सा 

है जब कि इस छोर के अनुभव कहीं ज़्यादा बीहड़ हैं और ये लोग सभ्यता का सामना करते दिखते हैं . 

बहरहाल अभी पहला दिन है , और पहला ही देश .

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तो क्या आने वाले समय में वैसे हालात इस छोर पर भी बन जाएंगे ? 

 निश्चय ही . यह इनएविटेबल है . अवश्मभावी . एक दिन हमें भी सभ्यता के आगे झौंक देना होगा खुद को 

. कब तक खुद को बचाए रख सकेंगे ? हमारी सारी अकड, सारी हेकड़ी एक दिन इस महान अन्धड़ के 

सामने घुटने टेके हुए दिखेगी . हम नही लड़ सकते . ज़्यादा एक्स्पोजर हमे और ज़्यादा कम्प्रोमाईज़ेज़ की 

तरफ धकेलते रहेगा . हाँ , हम सहेजने / छिपाने / छिपने की बजाए सामना करना सीखें तो तो ज़्यादा बचा 

पाएंगे .

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